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आज स्कूल में शहर की LADY SDM आने वाली थी। क्लास की सारी लड़कियां ख़ुशी के मारे फूले नहीं समा रही थी। सबकी बातों में सिर्फ एक ही बात थी SDM, और हो भी क्यों न, आखिर वो भी एक लड़की थी. पर एक ओर जब सब लड़कियां व्यस्त थी SDM की चर्चाओं में, एक लड़की सीट की लास्ट बेंच पर बैठी पेन और उसके कैप से खेल रही थी. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था कौन आ रहा है और क्यों आ रहा है ? वो अपने में मस्त थी. वो लड़की थी आरुषि ! आरुषि पास के ही एक गांव के एक किसान की इकलौती बेटी थी. स्कूल और उसके घर का फासला लगभग 10 किलोमीटर का था, जिसे वो साइकिल से तय करती थी. स्कूल में बाकी सहेलियां उससे इसलिए ज्यादा नहीं जुड़कर रहती थी क्योंकि वह उनकी तरह रईस नहीं थी लेकिन इसमें उसका क्या दोष था ? खैर, उसकी जिंदगी सेट कर दी गयी थी।
इंटरमीडिएट के बाद उसे आगे नहीं पढ़ा सकते थे क्योंकि उसके पापा पैसा सिर्फ एक जगह लगा सकते थे, या शादी में या आगे की पढाई में. उसके परिवार में कोई भी मैट्रिक से ज्यादा पढ़ा नहीं था.। बस यही रोडमैप उसके आँखों के सामने हमेशा घूमता रहता कि ये क्लास उसकी अंतिम क्लास है और इसके बाद उसकी शादी कर दी जाएगी इसीलिए वह आगे सपने ही नहीं देखती थी अत: उस दिन एसडीएम के आने का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा. ठीक 12 बजे SDM उनके स्कूल में आयी. यही कोई 24 -25 साल की लड़की पीली बत्ती की अम्बेसडर गाड़ी और साथ में 4 पुलिसवाले.2 घंटे के कार्यक्रम के बाद एसडीएम चली गयी लेकिन आरुषि के दिल में बहुत बड़ी उम्मीद छोड़कर गयी. उसे अपनी जिंदगी से अब प्यार हो रहा था जैसे उसके सपने अब आज़ाद होना चाहते हों !
उस रात आरुषि सो नहीं पायी. स्कूल में भी उसी उलझन में लगी रही, क्या करूँ ? वह अब उड़ना चाहती थी। फिर अचानक पापा की गरीबी उसके सपनों और मंजिलों के बीच आकर खड़ी हो जाती. वह घर वापस गयी और रात को खाने के वक़्त सब माँ-पापा को बता डाला. पापा ने उसे गले से लगा लिया. उनके पास छोटी सी जमीन का एक टुकड़ा था, कीमत यही ₹50000 रुपये की होगी. आरुषि की शादी के लिए उसे डाल रखा था. पापा ने कहा कि मैं सिर्फ एक ही चीज पूरी कर सकता हूँ; तेरी शादी के लिए हो या तेरे सपने.
आरुषि अपने सपनों पर दांव खेलने को तैयार हो गयी. इंटरमीडिएट के बाद उसने बीए में दाखिला लिया क्योंकि ग्रेजुएशन में इसकी फीस सबसे सस्ती थी. पैसे का इंतजाम पापा ने किसी से मांगकर कर दिया पर यह उसकी मंजिल नहीं थी। उसकी मंजिल तो कहीं और थी. उसने तैयारी शुरू की. सबसे बड़ी समस्या आती किताबों की तो उसके लिए नुक्कड़ की एक पुरानी दुकान का सहारा लिया, जहाँ पुरानी किताबे बेची या खरीदी जाती थी. ये पुरानी किताबें उसे आधी कीमत में मिल जाती थी. वो एक किताब खरीद लाती और पढ़ने के बाद उसे बेचकर दूसरी किताब। कहते हैं न कि जब परिंदों के हौसलों में शिद्दत होती है तो आसमान भी अपना कद झुकाने लगता है. आरुषि की लगन देखकर दुकान वाले अंकल ने उसे किताबें फ्री में देनी शुरू की। बाद में कुछ किताबें तो खुद नयी खरीदते हुए देकर कहते कि बिटिया जब साहब बन जाना तो सूद समेत वापस कर देना। कुछ भी हो, आरुषि इस यकीन को नहीं तोड़ना चाहती थी.
ग्रेजुएशन के 2 साल पूरे हो गए. उसकी तैयारी लगातार चलती रही. सब ठीक चल रहा था कि अचानक उसके माँ की तबियत ख़राब हो गयी. इलाज के लिए पैसे की जरुरत थी लेकिन पहले से घर क़र्ज़ में डूब चूका था. अंत में पापा ने जमीन गिरवी रख दी. इसी बीच उसने ग्रेजुएशन के तीसरे वर्ष में दाखिला लिया. समस्याएं दामन नहीं छोड़ रही थी. आरुषि कब तक अपने हौसलों को मजबूत बनाने की कोशिश करती। आख़िरकार एक दिन मां से लिपटकर वह बहुत रोते हुए एक बात पूछी- "मां, हमारे कभी अच्छे दिन नहीं आएंगे ?" मां ने उसे साहस दिया। तब फिर से उसने कोशिश की. कहते हैं कि योद्धा कभी पराजित नही होते, या तो विजयी होते हैं या वीरगति को प्राप्त होते हैं. 23 जून को आरुषि ने प्रारंभिक परीक्षा पास की थी. अब बारी मुख्य परीक्षा की थी.
आरुषि के हौसले अब सातवें आसमान को छू रहे थे. तीन वर्ष की लगातार कठिन परिश्रम का फल था कि आरुषि ने मुख्य परीक्षा भी पास कर ली. अब वह अपने सपने से सिर्फ एक कदम दूर खड़ी थी. पीछे मुड़कर देखती तो उसे सिर्फ तीन लोग ही नजर आते माँ, पापा और दुकानवाले अंकल. आख़िरकार इंटरव्यू हुआ. अंतिम परिणाम में आरुषि ने सफलता हासिल की. आरुषि को जैसे यकीन नहीं हो रहा था. माँ, पापा तो अपने आंसुओं के सैलाब को रोक नहीं पा रहे थे. आरुषि अपने घर से तेजी से निकल गयी, उन्हीं आंसुओं के साथ, आखिर किसी और को भी तो उसे धन्यवाद देना था. सीधे जाकर दुकानवाले अंकल के पास रुकी. अंकल ने उसे गले से लगा लिया और खुद भी छलक गए।
असल में ये जीत सिर्फ आरुषि की नहीं थी. इस जीत में शामिल थी माँ की ममता, पिता के हौसले और दुकान वाले अंकल का यकीन !!!
इंटरमीडिएट के बाद उसे आगे नहीं पढ़ा सकते थे क्योंकि उसके पापा पैसा सिर्फ एक जगह लगा सकते थे, या शादी में या आगे की पढाई में. उसके परिवार में कोई भी मैट्रिक से ज्यादा पढ़ा नहीं था.। बस यही रोडमैप उसके आँखों के सामने हमेशा घूमता रहता कि ये क्लास उसकी अंतिम क्लास है और इसके बाद उसकी शादी कर दी जाएगी इसीलिए वह आगे सपने ही नहीं देखती थी अत: उस दिन एसडीएम के आने का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा. ठीक 12 बजे SDM उनके स्कूल में आयी. यही कोई 24 -25 साल की लड़की पीली बत्ती की अम्बेसडर गाड़ी और साथ में 4 पुलिसवाले.2 घंटे के कार्यक्रम के बाद एसडीएम चली गयी लेकिन आरुषि के दिल में बहुत बड़ी उम्मीद छोड़कर गयी. उसे अपनी जिंदगी से अब प्यार हो रहा था जैसे उसके सपने अब आज़ाद होना चाहते हों !
आरुषि अपने सपनों पर दांव खेलने को तैयार हो गयी. इंटरमीडिएट के बाद उसने बीए में दाखिला लिया क्योंकि ग्रेजुएशन में इसकी फीस सबसे सस्ती थी. पैसे का इंतजाम पापा ने किसी से मांगकर कर दिया पर यह उसकी मंजिल नहीं थी। उसकी मंजिल तो कहीं और थी. उसने तैयारी शुरू की. सबसे बड़ी समस्या आती किताबों की तो उसके लिए नुक्कड़ की एक पुरानी दुकान का सहारा लिया, जहाँ पुरानी किताबे बेची या खरीदी जाती थी. ये पुरानी किताबें उसे आधी कीमत में मिल जाती थी. वो एक किताब खरीद लाती और पढ़ने के बाद उसे बेचकर दूसरी किताब। कहते हैं न कि जब परिंदों के हौसलों में शिद्दत होती है तो आसमान भी अपना कद झुकाने लगता है. आरुषि की लगन देखकर दुकान वाले अंकल ने उसे किताबें फ्री में देनी शुरू की। बाद में कुछ किताबें तो खुद नयी खरीदते हुए देकर कहते कि बिटिया जब साहब बन जाना तो सूद समेत वापस कर देना। कुछ भी हो, आरुषि इस यकीन को नहीं तोड़ना चाहती थी.
ग्रेजुएशन के 2 साल पूरे हो गए. उसकी तैयारी लगातार चलती रही. सब ठीक चल रहा था कि अचानक उसके माँ की तबियत ख़राब हो गयी. इलाज के लिए पैसे की जरुरत थी लेकिन पहले से घर क़र्ज़ में डूब चूका था. अंत में पापा ने जमीन गिरवी रख दी. इसी बीच उसने ग्रेजुएशन के तीसरे वर्ष में दाखिला लिया. समस्याएं दामन नहीं छोड़ रही थी. आरुषि कब तक अपने हौसलों को मजबूत बनाने की कोशिश करती। आख़िरकार एक दिन मां से लिपटकर वह बहुत रोते हुए एक बात पूछी- "मां, हमारे कभी अच्छे दिन नहीं आएंगे ?" मां ने उसे साहस दिया। तब फिर से उसने कोशिश की. कहते हैं कि योद्धा कभी पराजित नही होते, या तो विजयी होते हैं या वीरगति को प्राप्त होते हैं. 23 जून को आरुषि ने प्रारंभिक परीक्षा पास की थी. अब बारी मुख्य परीक्षा की थी.
असल में ये जीत सिर्फ आरुषि की नहीं थी. इस जीत में शामिल थी माँ की ममता, पिता के हौसले और दुकान वाले अंकल का यकीन !!!
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