डरती थी पर हारती न थी

Like us on FB
इं दि रा गांधी ने अपने संस्मरण ‘बचपन के दि न’
में लिखा है- ‘मुझे अंधेरे से डर लगता था, जैसा
कि शायद प्रत्ये क छोटे बच्चे को लगता है।

रोज़ शाम को अकेले ही निचली मंज़िल के खाने के कमरे से ऊपरी
मंज़िल के शयनकक्ष तक की यात्रा मुझे बहुत भयभीत
करती थी।
लम्बे , फैले हुए बरामदे को पार करना,
चरमराती हुई लकड़ी की सीढ़ियों पर चढ़ना और एक
स्टूल पर चढ़कर दरवाज़े के हत्थे और बत्ती के स्विच
तक पहुंचना।
अगर मैंने अपने इस डर की बात किसी
से कही होती, तब मुझे पूरा विश्वास है कि कोई न कोई
मेरे साथ ऊपर आ जाता या देख लेता कि बत्ती जल रही
है या नहीं।
लेकिन उस उम्र में भी साहस का ऐसा महत्व
था कि मैंने निश्चय कि या कि मुझे इस अकेलेपन के भय
से स्वयं ही छुटकारा पाना है।...

शुरू में मेरा मनपसंद खिल ौना एक भालू था। उससे
जुड़ी एक घटना उस पुरानी कहावत की याद दिल ाती है
कि दया करने से कोई मर भी सकता है।

दरअसल, खिल ौना भालू से प्यार के कारण ही मैंने उसे नहलाया
और अपनी आंटी की चेहरे पर लगाने वाली नई और
महंगी फ्रेंच क्रीम उस पर पोत दी थी। अपनी रुआंसी हो
आई आंटी से मैंने डांट तो खाई ही, मेरे सुंदर भालू के
बाल भी हमेशा के लिए ख़राब हो गए थे।’

इंदिरा जी बचपन में टॉम बॉय थीं। उनकी बुआ
लक्ष्मी हरि सिह ने एक साक्षात्कार में बताया था कि मैं
अक्सर चुपके से नन्ही इंदिरा को मेज़ पर चढ़कर भाषण
देते या जोन ऑफ आर्क की तरह पत्थर पर खड़े होकर
सम्बोध ित करते देखा करती थी।

 उन्होंने 13 साल की उम्र में वानर सेना बनाकर आज़ादी की लड़ाई में बच्चों
को जोड़ा था। ये प्रसंग बताते हैं कि उनमें बचपन से ही
नेतृत्व क्षमता थी।
 इस परिपक्वत ा के बावजूद उनकी
रुचि यां आम बच्चों की तरह ही थीं, जैसा कि लक्ष्मी सि ंह
ने बताया है, ‘इंदि रा भी परी कथाएं और शेक्सपि यर,
चार्ल्स डिकेंस के बाल संस्मरण पढ़त ी थीं।’ 

Comments