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मैं दफ़्तर बस से ही आती-जाती हूं। बस में रोज़ा ना मि लने वाली
सवारिय ों से जान-पहचान के साथ कुछ से घनि ष्ठता भी बढ़ जाती है।
हमने एक-दूसरे को मोबाइल नम्बर भी दे रखे हैं, जि ससे कभी एक-दो
मि नट देर होने पर एक-दूसरे को फ़ोन कर बस रोक लेते हैं। बस में ही
मेरे साथ एक लड़की जाती थी, जो अक्सर मुझे ही फ़ोन करके बस
रुकवाती थी। कभी-कभी इससे मुझे खीझ भी उठती थी।
उस दि न भी ऐसा ही हुआ। पूजा ने फ़ोन किय ा, ‘दीदी मैं दो मि नट
में पहुंच रही हूं, प्ली ज... बस रुकवा लेना।’ मगर मुझे जाने क्या
सूझी, मैंने जानबूझकर बस नहीं रुकवाई। मेरा मानना था ऐसा करने
से उसको सबक़ मि लेगा और वह समय पर बस स्टॉप पर पहुंचना
सीखेगी। अगले कई दि नों तक वह बस में नहीं आई और न ही उसका
कोई फ़ोन आया। बहुत लम्बा समय बीत जाने पर भी जब उसकी कोई
ख़बर नहीं मि ली, तो मैंने ही उसे फ़ोन किय ा। फ़ोन उसकी मम्मी ने
उठाया और सुबकते हुए बताया कि पूजा अब नहीं रही... यह सुनकर
मैं सन्न रह गई! पता चला कि उस दि न हमारी बस नि कल जाने के
बाद, बहुत देरी होने के कारण उसने ऑटो किय ा, जो कुछ दूर जाकर
पलट गया। इस दुर ्घटना में पूजा की मौत हो गई।
काश! उस दि न मैं बस रुकवा लेती, तो पूजा हमारे साथ होती।
यह अफ़सोस मुझे ताउम्र सालता रहेगा कि मैंने उस दि न बस क्यों
नहीं रुकवाई। उसके अंति म शब्द मेरे कानों में गूंजते हैं और बार-बार
उसकी याद दि लाते हैं। मन ही मन मैं भगवान से माफ़ी भी मांगती हूं।
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